प्राक्कथन

प्रस्तुत शोधप्रबंध ‘पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकास’ मूलतः पंजाब के एक दलित समुदाय का सामाजिक आर्थिक और धार्मिक अध्ययन है. देखने की बात है कि पंजाब में अपेक्षाकृत जनसंख्या के अनुपात से भारत के समग्र दलित जन समुदाय की बहुजनसंख्या संख्या निवास करती है इसके अपने ऐतिहासिक कारण हैं, जिनके विषय में अभी यहां चर्चा करने की गुंजाइश नहीं है, पर उल्लेख किया जा सकता है कि जब भारत के अन्य क्षेत्रों में दलित समुदाय विभिन्न जातियों में बँटे हुए हैं, यहां दलित जातियों ने अपनी विभिन्न धार्मिक अस्मिताएँ बना रखी हैं कबीरपंथ भी इसी प्रकार की एक धार्मिक अस्मिता का गठन है प्रस्तुत शोध प्रबंध में इस प्रक्रिया पर विस्तार से विचार किया गया है.

शोधप्रबंध इस बात को भी स्पष्ट करता है कोई कबीला किस प्रक्रिया द्वारा मूलधारा में शामिल होने पर स्वयमेव निम्नजातीय अर्थात शूद्र का स्थान ग्रहण कर लेता है. पंजाब के कबीरपंथी ‘मेघ’ जनजाति से संबद्ध हैं. ब्रिटिश भारत में 19वीं शताब्दी के पहले दशक में यह जनजाति सियालकोट के औद्योगिक संस्थानों में भर्ती के तौर पर अपनी शमूलियत हासिल करती है. प्रस्तुत शोध प्रबंध में एक जनजाति के वर्ण व्यवस्था में प्रवेश पाने की प्रक्रिया पंजाब के कबीरपंथ के अध्ययन से स्पष्ट की गई है. हम जानते हैं भारत के प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास में यही प्रक्रिया कारगर रही है. कबीरपंथ के माध्यम से इस नए प्रयोग के स्पष्टीकरण द्वारा हम प्राचीन भारत के सामाजिक इतिहास पर एक सार्थक नजर डाल सकते हैं.

पंजाब के कबीरपंथ के विकास के अंतर्गत भारत विभाजन के पश्चात उजड़ कर आए हुए कबीर पंथियों के पुनर्स्थापन और उनके सांस्कृतिक विकास को प्रस्तुत शोध ग्रंथ में विस्तार से बताया गया है. इस प्रकार एक जनजाति के पूरे सौ वर्ष का विकास यहां प्रस्तुत किया गया है. इस प्रयत्न में प्रस्तुत शोध ग्रंथ 7 अध्याययों में विभाजित किया गया है. पहले अध्याय में विषय के स्थापन का एक ब्यौरा दिया गया है. इस अध्याय में विषय कथन, संबद्ध साहित्य के सर्वेक्षण की प्रक्रिया, विषय परिसीमन, अध्ययन का महत्व, सामग्री स्रोत और सीमाएं, अध्ययन का अनुक्रम और शोध प्रविधि का उपस्थापन प्रस्तुत किया गया है. प्रस्तुत अध्याय इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि यह एक क्षेत्रीय कार्य रूप में शोध प्रविधि का किस सीमा तक प्रयोग हो सकता है, बताने का प्रयास किया गया है.

पंजाब के कबीरपंथ पर लिखित सामग्री का नितांत अभाव है. लंबे समय तक कबीर पंथ की पहचान नहीं की गई. यह जनजाति जम्मू और स्यालकोट के एक सीमित क्षेत्र में सिमटी रही है. मूल धारा में इन लोगों के प्रति निरंतर एक उपेक्षा भाव बनाए रखा गया है. पंजाब के बंटवारे के पश्चात यह लोग विभाजित पंजाब के अनेक स्थानों पर बिखर गए और अपने अस्तित्व की दस्तक देने लगे प्रस्तुत अध्याय इन सीमाओं को स्पष्ट करने का प्रयास करता है दूसरे अध्याय में प्रस्तुति शिव भक्त शोधप्रबंध में पंजाब के कबीर पंथ के गठन को तुलनात्मक दृष्टि से स्पष्ट करने के लिए समग्र भारत के कबीर पंछियों का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है भारत के कबीरपंथ के विषय में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध होते हुए भी यहां कबीरपंथ के जनजातीय स्रोतों पर एक मौलिक दृष्टि डालने का प्रयास किया गया है इस बात को समझने का प्रयत्न किया गया है कि आखिर क्यों समग्र कबीर पंथ के लोग निम्न जातियों से संबंधित हैं वह वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत अ*** क्यों रहे हैं कबीरपंथ की विचारधारा से प्रेरणा लेकर इन लोगों ने प्रयत्न पूर्वक अपना धार्मिक गठन निर्मित किया है कबीरपंथी का यह गठन उनकी राजनीतिक सहभागिता में भी सहायक बनता है और इनकी सामाजिक स्थिति को भी अस्तित्व प्रदान करता है.

इस अध्याय में भारतीय स्तर पर कबीर पंथी साधुओं की जानकारी तथा उनके द्वारा समाज को दिए गए दिशा-निर्देशों तथा कबीर पंथ से संबंधित सामग्री के बारे में जानकारी देने का प्रयास किया गया है इसके अतिरिक्त विभिन्न शाखा शाखाओं ने विभिन्न पुस्तकों व ग्रंथों की रचना की है कि जानकारी देने का प्रयत्न है इस अध्याय में कबीरपंथी महात्माओं के जीवन के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है कबीरपंथ में कतिपय शाखाओं ने नाना प्रकार के बायो चारों को प्रश्रय दिया जाता है विभिन्न शाखाओं में मिलने वाले प्रमुख ग्रंथों पुस्तकों की चर्चा भी की गई है यह भी बताने का प्रयास किया गया है कि कबीर पंथ का आरंभ तथा प्रमुख शाखाएं और स्वतंत्र शाखाओं तथा 5 तथा संचार के साधनों के विषय में विस्तार सहित वर्णन है.

तीसरे अध्याय में पंजाब के कबीरपंथ के उद्भव के बारे में स्पष्ट करने का प्रयास है. पंजाब के कबीरपंथी मूलतः रियासत जम्मू की पहाड़ियों के निचले क्षेत्रों में बसने वाली एक जनजाति से संबद्ध है यह जनजाति मेघ नाम से विख्यात रही है. इस जाति का लिखित इतिहास हमारे पास उपलब्ध नहीं है और न ही कोई आधिकारिक ग्रंथ विद्यमान है जिससे हमें ये सूचनाएं मिल पाएं कि यह जनजाति किस प्रक्रिया से मूलधारा के एक अछूत वर्ग में रूपांतरित हुई है. इसलिए प्रस्तुत अध्ययन में क्षेत्रीय सर्वेक्षण, साक्षात्कार और सामाजिक आर्थिक परिवेश के आधार पर पंजाब के इस अछूत वर्ग की पृष्ठभूमि और सामाजिक रीति रिवाज तथा धार्मिक विश्वासों को प्रस्तुत किया गया है.

इस अध्याय का विषय है कि किस तरह और क्यों यह मेघ जनजाति जम्मू से सियालकोट की ओर पलायन कर गई थी. इस जाति के प्रमुख नेताओं के बारे में जानकारी देने का भी प्रयास है. यह स्पष्ट किया गया है कि कैसे इस जाति की अनुसूचित जातियों में शमूलियत हुई. यह समुदाय पढ़ाई लिखाई, भूमि की मिल्कियत से कैसे वंचित रहा.

इस अध्याय में वर्णन है कि यह जाति मूलधारा की जातियों में किस पायदान पर स्थित है. किस प्रक्रिया से यह जनजाति हिंदू मूलधारा की शमूलियत की अपेक्षा करती रही यह प्रश्न प्रस्तुत अध्याय के अध्ययन का विषय रहे हैं.

इस अध्याय में यह भी समझने की कोशिश है कि आर्य समाज का कबीरपंथियों पर क्या प्रभाव रहा और उन्होंने इनके लिए क्या कार्य किया. कबीरपंथी और आर्य नगर में क्या संबंध रहा है, समझने का विशेष प्रयास है. इसके साथ ही सिंह सभा आंदोलन और कबीर पंथ को भी समझने का प्रयास है. यह भी समझने का प्रयास किया गया है कि इन आंदोलनों के पीछे क्या हालात थे. किसलिए आर्य समाज और सिंह सभा को कबीर पंथियों की आवश्यकता पड़ी. इसका कबीर पंथियों पर क्या प्रभाव पड़ा, समझने की चेष्टा है.

इस अध्याय में यह भी समझने का प्रयास किया है कि कबीर पंथियों का किस प्रकार सामाजिक रूपांतरण हुआ है. देश के बंटवारे के समय इन पर क्या बीती, समझने का प्रयास भी है. जम्मू के क्षेत्र में किन कानूनों के द्वारा उन्हें प्रताडित किया जाता रहा है और किस तरह इन्हें जम्मू के क्षेत्र में भूमि प्राप्त हुई, समझने का प्रयास किया गया है.

चतुर्थ अध्याय में पंजाब के कबीर पंथियों के व्यवसाय के बारे में समझने का प्रयत्न है. कबीरपंथी कुशल शिल्पी सिद्ध हुए हैं. मुसलमान बुनकरों की शिक्षा ने उन्हें प्रवीण जुलाहा होने में मदद की है इसके अतिरिक्त ये लोग खेलों के सामान बनाने वाले कारखानों में कुशलता से कार्यरत हैं.

इस अध्याय में यह भी समझने का प्रयास है कि कैसे कबीरपंथी लोगों को भूमि का स्वामित्व प्राप्त हुआ है. कैसे यह लोग किसान बने हैं. खेत मजदूरों से किसान बनने की प्रक्रिया में प्रांतीय प्रशासन का बहुत बड़ा योगदान है. हम जानते हैं गैर-काश्तकार जातियों के नाम पर जमीन अलॉट नहीं की जा सकती थी. समय ने करवट ली इन्हें भूमि प्राप्त हुई और यह किसान बन गए. इनको जम्मू में भूमि का आवंटन किया गया. पंजाब में नज़ूल भूमि प्राप्त हुई. किसान होने पर यह अछूत जाति अपने पैरों पर खड़ा होने की सामर्थ्य जुटा पाई है.

इस अध्याय में कबीर पंथियों की आर्थिक गतिशीलता पर विचार किया गया है. अल्पकाल में ही एक जनजाति किस प्रकार समाज के उच्च प्रशासनिक पदों को पाने की सामर्थ्य ग्रहण कर लेती है, यह देखने की बात है. कबीरपंथी आर्य समाज के सुधार आंदोलन द्वारा उदार चित्त और सौजन्यमयी नागरिक बनते गए हैं.

इस अध्याय में यह भी समझने का प्रयास है कि ये लोग किस तरह सबसे पहले सैनिक सेवाओं में भर्ती हुए. जो लोग सैनिक बन गए उनका समाज में क्या स्थान रहा है. उनको इस सेवा से क्या लाभ प्राप्त हुआ समझने की चेष्टा है. पांचवें अध्याय में पंजाब के कबीरपंथियों के धार्मिक स्वरूप का वर्णन किया गया है. जैसा कि हम बता चुके हैं कि कबीरपंथी समाज की मूलधारा में प्रवेश पाने से पहले जनजातीय स्तर पर थे. जनजातीय लोगों का धर्म आदिम जादुई प्रकार का होता है उनके यहां कोई ईश्वर नहीं होता, कोई उपासना नहीं होती. वे किसी उच्च सत्ता से प्रार्थना नहीं करते. बल्कि कर्मकांडीय ढंग से अपनी इच्छा पूर्ति के लिए प्राकृतिक और अतिप्राकृतिक शक्तियों के प्रति क्रियाशील होते हैं. उनके यह कर्मकांड सामूहिक होते हैं. और सभी के हित के लिए नियोजित किए जाते हैं. पंजाब के कबीरपंथियों का आदधर्म का स्वरुप इससे भिन्न नहीं रहा है. वर्तमान समय में कबीर पंथियों का अध्ययन करते हुए हमने उनके धार्मिक दृष्टिकोण का अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. देखा गया है कि उनमें एक ओर जनजातीय कर्मकांडों की जड़ें विद्यमान है तो दूसरी ओर उत्तरोत्तर वह मूल धारा के धर्मों को अपनाते हुए नए धार्मिक संस्थानों का निर्माण करते आ रहे हैं.

कबीर पंथियों की सभी देहुरियां जम्मू में विभिन्न स्थानों पर स्थित हैं. य देवरियां किस तरह बनी, इन में पूजा अर्चना का ढंग क्या है, किस तरह वहां पर कर्मकांड किए जाते हैं स्पष्ट किया गया है. लक्षित किया गया है कि एक समय इनका अछूत मानकर मंदिरों में जाना वर्जित था. परंतु आर्य समाज में शामिल होने के बाद इनके सामाजिक रुतबे में अभूतपूर्व रूपांतरण हुआ है. इसके साथ ही आजकल नए मंदिर निर्माण की प्रक्रिया के अनेक पहलुओं पर विचार किया गया है.

प्रस्तुत अध्याय में कबीर पंथियों में सिख धर्म के प्रभाव को और इनके सिख रूपांतरण को समझने समझाने का प्रयत्न है. क्या इन के गुरुद्वारे अलग हैं या सामान्य सिखों वाले ही हैं समझने का प्रयास किया गया है. यह भी समझने का प्रयास किया गया है कि ये लोग सिख किस तरह और कैसे बने.

प्रस्तुत शोध ग्रंथ में कबीर पंथियों के धार्मिक साहित्य का विशेष रूप से अध्ययन प्रस्तुत है. कबीर मंसूर ग्रंथ इन दिनों कबीर पंथियों के यहां काफी लोकप्रिय ग्रंथ है. बीजक के पंजाबी अनुवाद की प्रतियां कबीर मंदिरों में स्थापित की गई है.

श्री गुरु ग्रंथ साहिब’ सिख धर्म का एकमात्र प्रामाणिक और धार्मिक ग्रंथ है इसमें सिख गुरुओं के अतिरिक्त भक्तों और भाटों की वाणी भी दर्ज है. भक्तों में कबीरा आदि संतो की रचनाएं संग्रहित हैं. इस ग्रंथ में कबीर के 229 पद हैं तथा 243 श्लोक हैं जो विभिन्न रागों में हैं. कबीर वाणी के प्रमाणिक पाठ के लिए कबीर पंथियों ने इस महान ग्रंथ को सदैव श्रद्धेय स्वीकार किया है. सिख कबीर पंथियों का यही एकमात्र धार्मिक ग्रंथ है. सिख कबीरपंथी बीजक को स्वीकार नहीं करते.

छठे अध्याय में पंजाब के कबीर पंथियों के सामाजिक स्वरूप और जातिगत आग्रहशीलता को केंद्र में रखा गया है. पंजाब के कबीरपंथियों के रीति-रिवाज विशेष रूप से अध्ययन का विषय रहे हैं. मेरे सामने प्रश्न थे कि पंजाब के कबीर पंथियों का रिश्ता नाता प्रबंध कैसा है? इन लोगों के जन्म, खुशी, विवाह, मृत्यु आदि के क्या रीति-रिवाज़ हैं. उन में क्या वर्जनाएँ हैं. इन रिवाजों को कैसे संपन्न किया जाता है आदि पर गंभीरता से विचार किया गया है. पंजाब के कबीरपंथियों के विवाह व अन्य खुशी संबंधी लोकगीतों के संकलन और विवरणों द्वारा जनजाति चेतना को स्पष्ट किया गया है.

पंजाब के कबीरपंथियों के व्यवसाय, भाषा और बोली तथा इनके रंगरूप, स्वभाव, वस्त्र, मनोरंजन, खानपान का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है. यह भी समझने की चेष्टा रही है कि पंजाब के कबीर पंथियों का सांस्कृतिक बदलाव किन स्तरों पर और किस प्रक्रिया द्वारा अग्रसर हुआ है.

इस प्रकार प्रस्तुत शोध ग्रंथ डॉक्टर सेवा सिंह, पूर्व अध्यक्ष संत कबीर चेयर गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी अमृतसर के निर्देशन में संपन्न किया गया है. उनके दिशा निर्देश के आधार पर ही मुझे विषय संबंधी क्षेत्रीय सर्वेक्षण की प्रक्रिया को समझने का अवसर प्राप्त हुआ है. उन्होंने पग-पग पर मुझे प्रस्तुत शोध में आगे बढ़ने का प्रोत्साहन प्रदान किया है.

गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के वरिष्ठ प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष डॉ हरमहेंद्र सिंह जी बेदी के विद्वत्तापूर्ण सहयोग के बिना प्रस्तुत शोध को संपन्न नहीं किया जा सकता था. हमारी अनेक मुश्किलों को अपनी योग्यता के बल पर उन्होंने सुलझाने का प्रयत्न किए रखा है. मैं उनके प्रति आभार व्यक्त करता हूं.

गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से पुस्तकों के चयन में डॉ शहरयार ने बहुत सहायता की है. मैं उनका आभारी हूं.

प्रस्तुत शोध के सिलसिले में निरंतर 5 वर्षों से जूझते हुए सुपत्नी शारदा देवी, सुपुत्र हरदेव सिंह तथा गुरप्रीत सिंह का सहयोग और प्रोत्साहन मेरा सबसे बड़ा संभल रहा है. इस दौर की अन्य अनेक दारुण स्थितियों उबर पाया हूं, यह इन्हीं की जीवटता और प्रतिबद्धता का फल है.

प्रस्तुत शोध प्रबंध के टंकण में रवि प्रिंटिंग प्रेस की शिव कुशल और प्रतिभाशाली बालिकाओं ने बड़ी धीरता से मेरी मदद की है. पुनः पुनः पृष्ठों का टंकन किया जाना इसका प्रमाण है. मैं उनके प्रति आभार व्यक्त करता हूं.

मित्रों, साथियों और सहयोगियों ने प्रस्तुत शोध में मुझे लगातार प्रोत्साहित किया है. मैं उन सभी का धन्यवादी हूं.

ध्यान सिंह


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